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Tuesday 21 July 2020

नपुंसक जनता



पुलिस के हाथों ब्लाउज़ फटती

केश घसीटें जाते हैं,

छाती पर एड़ी रगड़ रगड़

भूखे ही पीटे जाते हैं,


पर चुप बैठे हैं सब जैसे

टिलठी पर सोए मुर्दें हों,

गिद्धों द्वारा छोड़े शव के

धुसरित गिरे पड़े गुर्दें हों,


यदि उठती धूल बवंडर बनकर

राजमहल ढक जाता अब तक,

थर थर थर थर फर्श काँपती

जनपथ शोर मचाता अब तक,


होते जिंदा तो डगमग डगमग

काँप गया होता सिंहासन,

रगड़ चुका होता घुटने बल

अब तक अपनी नाक प्रशासन,


पर जनता जब अंधी हो जाती

वरण विनाश कर लाती है,

आओ दुशासन चीर हरो

खुद ही न्योता दे आती है,


धर्मांध हुई जनता हँस कर

निज उपहास उड़वा सकती है,

खुशी खुशी पागल कुत्तों से

खुद को ही नुचवा सकती है,


ऐसी मूर्ख नपुंसक जनता

डंडों की ही अधिकारी है,

नित छल शोषण के लिए सुलभ

इस लोकतंत्र को गाली है।


          अरुण तिवारी