माना की नम्र स्वभाव तुम्हारा शिष्ट शीश का चंदन,
ये छाती किंतु सहेगी कब तक घर घर का ये क्रंदन,
सृजन शांति का होगा कब तक सहकर अत्याचारों को?
कब तक द्वापर जैसे क्षमा करोगे तुम हत्यारों को?
अस्तित्व मिटाने पर जो उतरे जिसने आग लगाई,
तुम उनको कब तक पाप-पुण्य का दोगे धर्म दुहाई?
आखिर कब तक अन्यायी सिंघासन को फिर झेलोगे?
आखिर कब तक कूटनीति का पुन: द्यूत तुम खेलोगे?
क्या पांचजन्य की गूँज अभय क्या भूल गए तुम गीता?
क्या भूल गए तुम महायुद्ध जिसको है तुमने जीता?
वज्र भाईयों का आखिर तुम कब तक क्रुद्ध नकारोगे?
तथ्य परम फिर सत्य परम तुम कब तक युद्ध नकारोगे?
अब मांस लटकते दाँतों में हाँथों में लहू सने हैं,
वो रक्त चख चुके हैं देखो वो आदमखोर बने हैं,
ढ़ल गया मनुजता का सूरज घिर गई रात फिर देखो,
व नीति अनीति के परिधि पार जा चुकी बात फिर देखो।
या तो दो आदेश! धनुर्धर फिर से धनुष उठाओ तुम,
अब या तो फिर स्पष्ट शब्द में हमको ये बतलाओ तुम,
तुम रक्त खौलता रग में कब तक कटती खाल सहोगे?
हे धर्मराज आखिर कब तक शकुनी की चाल सहोगे?
-©अरुण तिवारी