मेरी कविता "एक संदेश" पर एक बच्ची का नृत्योभिनय।
तुमने जो मेरी साँसों में चिमनी की धुंध भरी है,
घुटती हूँ मैं नित ही उसमें पीड़ा भी अति गहरी है,
यदि पुत्र तुम्हें कृत्रिम बागों में साँस न कल दे पाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
तुमने जो मेरी साँसों में चिमनी की धुंध भरी है,
घुटती हूँ मैं नित ही उसमें पीड़ा भी अति गहरी है,
यदि पुत्र तुम्हें कृत्रिम बागों में साँस न कल दे पाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
हरे भरे कानन लुटा दिए कॉनक्रीट की हस्ती पर,
भव्य भवन जो चमक रहे ये चढ़ दरख्त की अर्थी पर,
इन स्मार्ट शहर के नल से यदि इक बूँद गिरा ना पाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
अब जहाँ कूँजते थे खग कलरव शोर हुआ सैलाबी,
सरसों के पीले फूलों पर हैं राजमार्ग अब हाबी,
ताल तलैया नदियाँ नहरें सूख गईं बरसातों में,
खेतों खलिहानों की महता सिमट गई बस बातों में,
यदि बंजर होकर एक अन्न भी खिला तुम्हें ना पाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
मृगशावक मृगपतियों से था गजराजों से भरा-भरा,
उधड़ गईं उनकी खालें वन सूखा सूना मरा-मरा,
अस्तित्व युद्ध में साथ तुम्हारा दे न अगर मैं पाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
उस भ्रूण में कोई नहीं मरा बस मरा पुण्य का तेज,
और सृजन चक्र का वेग मर गया सजी पाप की सेज,
ये जात-पात व भ्रष्ट आचरण बढ़े जो पापाचारी,
मैं नष्ट इन्हें कर सकती हूँ पर तुम पुत्रों से हारी,
घृणित स्वयं से हो कल यदि मैं निज विनाश पर तुल जाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
हो कठोर कहती हूँ तुमने मेरा आँचल फाड़ा है,
बस विकास की धुन में तुमने मेरा मान लताड़ा है,
कल मचे बवंडर मैं डोलूँ यदि अपना क्रोध दिखाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
- ©अरुण तिवारी
भव्य भवन जो चमक रहे ये चढ़ दरख्त की अर्थी पर,
इन स्मार्ट शहर के नल से यदि इक बूँद गिरा ना पाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
अब जहाँ कूँजते थे खग कलरव शोर हुआ सैलाबी,
सरसों के पीले फूलों पर हैं राजमार्ग अब हाबी,
ताल तलैया नदियाँ नहरें सूख गईं बरसातों में,
खेतों खलिहानों की महता सिमट गई बस बातों में,
यदि बंजर होकर एक अन्न भी खिला तुम्हें ना पाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
मृगशावक मृगपतियों से था गजराजों से भरा-भरा,
उधड़ गईं उनकी खालें वन सूखा सूना मरा-मरा,
अस्तित्व युद्ध में साथ तुम्हारा दे न अगर मैं पाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
उस भ्रूण में कोई नहीं मरा बस मरा पुण्य का तेज,
और सृजन चक्र का वेग मर गया सजी पाप की सेज,
ये जात-पात व भ्रष्ट आचरण बढ़े जो पापाचारी,
मैं नष्ट इन्हें कर सकती हूँ पर तुम पुत्रों से हारी,
घृणित स्वयं से हो कल यदि मैं निज विनाश पर तुल जाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
हो कठोर कहती हूँ तुमने मेरा आँचल फाड़ा है,
बस विकास की धुन में तुमने मेरा मान लताड़ा है,
कल मचे बवंडर मैं डोलूँ यदि अपना क्रोध दिखाऊँ,
तो हे विकास के अनुगामी तुम दोष मुझे मत देना।
- ©अरुण तिवारी